जालिम हुक्मरान का साथ देने वाले ही यजीदी हैं
जालिम हुक्मरान के खिलाफ थी कर्बला की जंग
मोहर्रम का मातिमी महीना चल रहा है। इस महीने के शुरुआती दस दिन जिहाद (संघर्ष) और गम के है। यह दस दिन इस्लाम के आखिरी नबी हजरत मोहम्मद रसूलल्लाह सल्लल्लाह अलैहि वसल्लम के नवासे हजरत हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हु और उनके खानदान वा अन्य सहाबाओं की शहादत से जुड़ा है। हजरत हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हु की तरफ से 72 सहाबा थे। इन 72 में हजरत हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हु के अलावा उनके छह माह के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शामिल थे। इनके अलावा शहीद होने वालों में उनके दोस्त और रिश्तेदार भी शामिल रहे। हुसैन का मकसद था, खुद मिट जाएं लेकिन वो इस्लाम जिंदा रहे।
वैसे तो इस्लाम में मोहर्रम का माह साल का पहला महीना है। और मोहर्रम की पहली तारीख हिजरी के मुताबिक नव वर्ष। लेकिन इसी माह में कर्बला की जंग हुई। और हजरत मोहम्मद के प्यारे नवासे हजरत इमाम हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हु और उनके दूध पीते बच्चे तक पर जुल्म की हद पार कर देने वा शहादत होने पर गम का इजहार करते है। मातम मनाते हैं, नोहे पढ़े जाते है, मजलिसे कायम की जाती है। सबीले लगाई जाती हैं।
यह तो परंपराएं है जो हम हजरत इमाम हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हु के शहादत के गम में मनाते हैं। लेकिन कभी सोचा है इस कर्बला की जंग से सबक क्या लेना था। यह वह जंग थी जिसमें जो निरंतर जारी रहनी थी। यह जुल्म, घमंड और मूर्ख बादशाह के खिलाफ जंग थी। यजीद घमंड, डर और मूर्खता की वजह से जालिम हो जाता है। और जुल्म की हर हद पार कर देता है। इसमें मूर्ख बादशाह सिर्फ अपने पाले में खड़े होने मात्र से जुल्म से निजात दे सकता था। बदबख्त यजीद सिर्फ यही चाहता था कि हजरत इमाम हुसैन रजी। उसकी खिलाफत स्वीकार कर लें। लेकिन अपनी अपने खानदान की और अपने चाहने वालों की गर्दन कटवाना मंजूर किया मगर ऐसे मूर्ख बादशाह के पाले में खड़े होना गवारा नहीं किया।
यह बात सिर्फ मुसलमानों पर ही लागू नहीं होती। क्योंकि जब कर्बला में यजीद जुल्म ढा रहा था तब हजरत इमाम हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हु ने सारी दुनिया से जुल्म के खिलाफ एकजुट होने की अपील की थी। हजरत इमाम हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हु की अपील पर अखंड भारत के ब्राह्मण भारतीय लश्कर लेकर यजीद के जुल्म के खिलाफ जंग के लिए कर्बला गए थे। उस दौर के सफर में जो वक्त लगा तब तक जालिम यजीद और उसका लश्कर अपना हर जुल्म की हद पार कर चुका था। हजरत इमाम हुसैन रजि अल्लाह ताला अन्हु शहादत पा चुके थे। जुल्म के खिलाफ भारतीय हमेशा से आगे रहे है।
यह सबक हमको ता कयामत तक याद रखना है कि किसी जालिम के साथ नहीं खड़ा होना है। बल्कि चाहिए तो यह कि जुल्म के खिलाफ जंग करें। जिहाद (संघर्ष) करें। अगर यह नहीं कर सकते तो जालिम को जालिम कहें। यह भी नहीं हो सकता तो चुप रहे पर थोड़े से लालच के चक्कर में जालिम के साथ तो न खड़े हों। आज उस समुदाय के लोग भी जो अपने आप को हुसैनी कहते है जालिम के साथ खड़े देखे जाते है। बस यही लोग यजीदी है। इनकी पहचान कीजिए और जो लोग जान माल की परवाह किए बगैर जालिम के खिलाफ खड़े है वही हुसैनी हैं।
इसीलिए मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने लिखा है कि ‘ज़िल्लत की जिंदगी से इज्ज़त की मौत बेहतर है। यह सिर्फ लेख नहीं है यह कर्बला की जंग जारी रखने का आह्वाहन हैं। जालिम यजीदी और हुसैनी की पहचान के लिए है।
लेखक सईद अहमद
प्रधान संपादक वेब वार्ता न्यूज एजेंसी
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