आचार्य श्री108 विद्यासागर का देवलोक गमन से समस्त राष्ट्र के लिए अपूर्णीय क्षति।
कृष्ण आर्य
पुनहाना
युगपुरुष,युगदृष्टा, अहिंसा प्रवर्तक,राष्ट्रसंत आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी मुनिराज के देवलोक गमन होने से समस्त राष्ट्र हतप्रभ व व्याकुल है। आचार्य विद्यासागर केवल मात्र जैन धर्म के अनुयायियों के ही संत नहीं बल्कि समस्त विश्व के संत थे। उन्होंने अपना सारा जीवन जन सेवा व अहिंसा के प्रचार के लिए समर्पित कर दिया। उनका देवलोकगमन जैन समाज के लिए ही नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र के लिए अपूर्णीय क्षति है। उक्त बातें जैन समाज के पूर्व अध्यक्ष गिरीश जैन ने कही।
उन्होंने बताया कि आचार्य जी का जन्म 10 अक्टूबर 1946 को हुआ था और उनका बचपन का नाम विद्याधर था। उन्होंने आचार्य श्री108 ज्ञानसागर से 30 जून 1968 को राजस्थान की पुण्य धरा अजमेर में जैन मुनि की दीक्षा प्राप्त की। वे आजीवन बाल ब्रह्मचारी रहे। उनकी दिनचर्या बड़ी कठिन व सरल थी। उन्होंने सदैव विश्व कल्याण की भावना के साथ अहिंसा का प्रचार प्रसार किया।
आचार्य श्री का जीवन परिचय:- आचार्य श्री विद्यासागर जी का का जन्म कर्नाटक राज्य के जिला बेलगांव के गांव सदलगा में 10 अक्टूबर 1946 शरद पूर्णिमा को हुआ। उनके पिता का नाम मल्लप्पा व माता का नाम श्री मती था। ये छह भाई बहन थे। उनके बचपन का नाम विद्याधर था। यह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे।
आचार्य श्री दीक्षा:- आचार्य श्री बाल ब्रह्मचारी थे ।09 वर्ष की आयु में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांति सागर जी महाराज के प्रवचन सुनकर आचार्य श्री की हृदय में वैराग्य का बीज अंकुरित हो गया ।12 वर्ष की आयु में आचार्य श्री 108 देशभूषण जी महाराज के सानिध्य में मुंजी बंधन संस्कार सम्पन्न हुआ। 22 वर्ष की आयु में आचार्य श्री विद्यासागर जी ने 30 जून 1968 में पुण्य भूमि अजमेर में आचार्य श्री 108 ज्ञान सागर जी महाराज से दीक्षा ली चारित्र चक्रवर्ती सम्राट आचार्य श्री 108 शांति सागर जी मुनिराज के वंश के थे।22 नवंबर सन 1972 में आचार्य ज्ञान सागर जी महाराज ने नसीराबाद की पुण्य धरा पर विद्यासागर मुनिराज को आचार्य के पद से सुशोभित किया।
आचार्य श्री कई भाषाओं के थे ज्ञाता:- आचार्य श्री विद्वता व तपस्या दोनों के लिए जाना जाता है । उन्हें लौकिक परलौकिक विद्या के परगामी थे। आचार्य विद्यासागर जी को प्राकृत,संस्कृत, सहित आधुनिक भाषाओं हिंदी, अंग्रेजी मराठी कन्नड़ सहित अनेक भाषाओं का ज्ञान रखते थे। उनका अधिकांश जीवन बुंदेलखंड के क्षेत्र में व्यतीत
हुआ।
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