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मशहूर शायर मिर्जा गालिब का मेवात से है, चोली दामन का साथ, -वह फिरोजपुर झिरका के नवाब शमसुद्दीन के बहनोई थे। मेवात में उन्हें नही करता कोई याद।

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मशहूर शायर मिर्जा गालिब का मेवात से है चोली दामन का साथ

-मशहूर शायर मिर्जा गालिब का मेवात से था खास लगाव

-वह फिरोजपुर झिरका के नवाब शमसुद्दीन के बहनोई थे।

-27 दिसंबर 1797 को पैदा हुआ था देश का महान शायर

 

 

यूनुस अलवी

मेवात/हरियाणा 

दिल्ली के अलावा मेवात ऐसी धरती है, जहां से मिर्जा गालिब का चोली दामन का साथ रहा है। मेवात में मिर्जा गालिब से जुडी कई दासताने हैं फिर भी सरकारी संस्थाओं और मेवात के सामाजिक संगठनों द्वारा उन्हें याद करने की जहमत तक नहीं उठाई जाती है। इससे तो अब यही नजर आता है कि सरकारें देश के महान सपूतों को भूलती जा रही है।

देश के महान शायर मिर्जा गालिब का मूल नाम असदुल्लाह बेग खां था। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को हुआ और 15 फरवरी 1869 को दिमाग की नस फटने के कारण उनका स्वर्गवास हो गया था। मेवात के तत्कालीन फिरोजपुर झिरका के नवाब शमसुद्दीन से ग़ालिब की रिश्तेदारी थी। नवाब शमसुद्दीन की बहन उमराव बैग से मिर्जा गालिब का निकाह हुआ था।

फिरोजपुर झिरका के नवाब अहमद बख्श के पिता मिर्जा आरिफ जान 18वीं शताब्दी के मध्य में भारत आये थे जबकि गालिब के दादा कुकान बेग खां मध्य एशिया से यहां आये थे। अहमद बख्श की बहन गालिब के ताऊ नसरुल्लाह खां से बिहाई गई थी। गालिब ने लिखा है कि दादा की मृत्यु के बाद उनके पिता ने लखनऊ जाकर नवाब आसिफ दौला के यहां नौकरी की थी। वह हैदराबाद के नवाब निजाम अली खां के नौकर भी रहे। गालिब के पिता अब्दुल्लाह बेग ख़ां की शादी मुगल सेना के एक अवकाश प्राप्त सेना नायक गुलाम हुसैन खां के परिवार में हुई। उनकी तीन संताने थी, दो पुत्र एक पुत्री। पुत्रों में सबसे बड़े हमारे मशहूर शायर मिर्जा गालिब थे। मिर्जा गालिब का मूल नाम असदुल्लाह बेग खान था। वर्ष 1802 में अब्दुल्ला बेग खां की मृत्यु के समय गालिब केवल पांच वर्ष के थे। उसके बाद गालिब का परिवार नसरूल्लाह बेग खां के संरक्षण में आगरा आ गया।

1803 में जब अंग्रेजों का प्रधान सेनापति लॉर्ड केक आगरा पहुंचा तो उस समय नसरूल्लाह खां वहां के किला के नायक थे। उन्होने अपने साले अहमद बख्श खां के कहने पर उनका कोई विरोध नहीं किया और किला लॉर्ड केक को सौंप दिया। बाद में लोर्ड केक ने नसरूल्लाह बेग खां को भरतपुर के सोंक व सूसा नामक दो किले जीवन भर के लिये इनाम में दे दिये। वर्ष 1806 में एक दिन नसरुल्लाह खान की हाथी से गिरकर मौत हो गई। इस तरह नसरुल्लाह खान और गालिब का परिवार एक बार फिर बेसहारा हो गया।

उधर 1806 तक नबाब अहमद बख्श फिरोजपुर झिरका और लोहारू भिवानी की दो छोटी रियासतों के नवाब बन चुके थे। नबाब ने इन बच्चों की देखभाल के लिये फिरोजपुर झिरका बुला लिया। लोर्ड केक से कहकर स्वर्गीय नसरूल्लाह बेग खां के परिवार के भरण पोषण के लिये 10 हजार रूपये सालाना पेंशन स्वीकृत करा ली। किन्हीं कारणों से यह एक माह बाद ही पांच हजार रूपये कर दी गई। मिर्जा गालिब और उसके भाई बहनों को इनमें से 750 रूपये सालाना हिस्सा मिलता था। आठ अक्टूबर 1827 को नबाब अहमद बख्श की कभी मृत्यु हो गई। अहमद बख्श के सबसे बड़े पुत्र होने के नाते शमशुद्दीन दोनों रियासतों का नवाब बन गया।

18 अक्टूबर 1835 को दिल्ली के रेजीडेंट फ्रेजर की हत्या के जुर्म में नवाब शमसुद्दीन को फांसी दे दी गई थी। उसके बाद मिर्जा गालिब को मिलने वाली पेंशन हमेशा के लिये बंद कर दी गई। कहते हैं जब इंसान पर मुसीबतों का पहाड़ टूटता है तो वह सोच फिकर में डूब जाता है। उस दौरान उसके दिल से निकलने वाले अलफाज एक हीरा बनकर निकलते है उन्हें पिरोने के बाद एक लडी बन जाती है। इस तरह हमारे महान शायर मिर्जा गालिब के उन गमों के दौरान लिखे गये अलफाज शेर बनते चले गये और यही शेर उन्हें दुनिया में मशहूर शायर बना गये।

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